Friday, October 25, 2019

आज मुशायरे में आदरणीय राकेश खंड़लवाल जी, दिगम्बर नासवा, मंसूर अली हाशमी, अभिनव शुक्ल और अंशुल तिवारी के साथ मनाते हैं रूप चतुर्दशी।


भारतीय संस्कृति में यह जो परिवार शब्द है, यह व्यापक अर्थों वाला शब्द है, इसे एकरेखीय नहीं कहा जा सकता। यह जब विस्तार में जाता है तो वहाँ तक पहुँचता है जहाँ ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ की बात आ जाती है। परिवार का यही विस्तार भारतीय संस्कृति को बाकी सारी सभ्यताओं, सारी संस्कृतियों से अलग करता है। यहाँ परिवार का अर्थ केवल रक्त संबंधों के कारण जुड़े हुए इन्सान नहीं होते, यहाँ वे सब जो भावनात्मक स्तर पर एक-दूसरे के साथ जुड़े हैं, वे भी परिवार का हिस्सा होते हैं। बहुत दिन नहीं हुए, जब हमारे यहाँ एक पूरा मोहल्ला, एक परिवार होता था। आज भी होता है, छोटे क़स्बों में, गाँवों में। और गहरे उतरेंगे तो पाएँगे कि अभी भी कहीं-कहीं कुछ गाँव या छोटे क़स्बे ऐसे मिल जाएँगे, जो पहले की ही तरह एक परिवार के रूप में जी रहे हैं। हम जितने एकाकी और जितने आत्मकेन्द्रित होते चले जाएँगे, हमारी समस्याएँ, हमारी पीड़ाएँ, हमारे कष्ट, उतने ही बढ़ते जाएँगे। मतलब यह कि हमारे जीवन में अंधकार उतना ही बढ़ता चला जाएगा। चेतना के स्तर पर हम इतने निरीह होते जाएँगे कि हमें सूझेगा भी नहीं कि अंधकार का क्या किया जाए ? तब वे सब जो हमारा परिवार हैं, उनकी ज़रूरत हमें शिद्दत से महसूस होगी। अंधकार हमेशा आत्मकेन्द्रित होता है और प्रकाश हमेशा विस्तार पाने के प्रयास में लगा रहता है, हर उस कोने में पहुँचने के प्रयास में जहाँ अभी भी अँधेरा है। प्रकाश के लिए सचमुच ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ ही परिवार होता है। हम अपनी समस्याओं का अंधेरा लिए जब अपने परिवार के पास लौटते हैं, तो हम देखते हैं कि हमारे उस परिवार का हर सदस्य विश्वास के तेल में भीगी हुई प्रेम की बाती से प्रकाशित दीपक लिए हमारे पास आकर खड़ा हो गया है, हम अपने अंदर उस प्रकाश की उजास को महसूस करते हैं।

उजालों के लिए मिट्टी के फिर दीये तलाशेंगे

 

राकेश खण्डेलवाल
 
कभी संध्या में जलते हैं किसी की याद के दीपक
कभी विरहा में जलते हैं किसी के नाम के दीपक
कभी राहों के खंडहर में कभी इक भग्न मंदिर में
कोई आकर जला जाता किशन के राम के दीपक
मगर जो राज राहों पर घिरे बादल अँधेरे के
कोई भी रख नहीं पाता उजाले को कोई दीपक
चलो निश्चित करें हम आज, गहरा तम मिटा देंगे
उजालों के लिए मिट्टी के फिर दीये तलाशेंगे

जले हैं कुमकमे अनगिन कहीं बुर्जों मूँडेरो पर
उधारी रोशनी लेकर, जली जो कर्ज ले ले कर
कहीं से बल्ब आए हैं कहीं से ऊर्जा आई
चुकाई क़ीमतें जितनी बहुत ज्यादा हैं दुखदाई
किसे मालूम लड़ पाएँ ये कितनी देर तक तम से
टिके बैसाखियों पर बोझ ये कितना उठा लेंगे
चलें लौटें जड़ों की ओर, हमें विश्वास है जिन पर
उजालों के लिए मिट्टी के फिर दीये तलाशेंगे

बहत्तर वर्ष बीते हैं मनाते यूं ही दीवाली
न खीलें हैं बताशे हैं रही फिर जेब भी खाली
कहानी फिर सूनी वो ही, कि कल आ जाएगी लक्ष्मी
बसन्ती दूज फिर होगी सुनहरे रंग की नवमी
सजेगा रूप चौदस को, त्रयोदश लाए आभूषण
खनकते पायलों - कंगन के सपने कितने पालेंगे
चलें बस लौट घर अपने, वहीँ बीतेंगे अपने दिन
उजाले के लिए मिट्टी के फिर दीपक जला लेंगे 


राकेश जी के गीत हर वर्ष दीपावली के उत्सव में चार चाँद लगा देते हैं। और सबसे अच्छी बात यह है कि उनके एक से भी अधिक गीत प्राप्त होते हैं, जो लगातार हमारे पूरे दीपोत्सव में हमारे साथ रहते हैं। इस बार की गीत बहुत प्रेमिल भावों से भरा हुआ है। किसी की यादों के दीपक जो जीवन में सदैव जलते रहते हैं, जीवन के अँधेरों को उनसे ही रौशनी मिलती है। जले हैं कुमकुमे में हम सब के जीवन का एक कड़वा सत्य सामने आया है। उधारी रौशनी के रूप में एक नया प्रयोग करते हुए मानों हमें चेताया गया है और कहा गया है कि जड़ों की तरफ़ लौटने में ही भलाई है। अंतिम बंद बहुत भावुक कर देने वाला है। लौटना एक ऐसी प्रक्रिया है, जो सब चाहते हैं, किन्तु यह प्रक्रिया कभी पूरी नहीं हो पाती। सब चाहते हैं कि खनकते पायलों और कंगनों के पास लौटें। बहुत ही सुंदर गीत है । वाह वाह वाह।

दिगम्बर नासवा


पटाखों की नई किस्मों को फिर बच्चे तलाशेंगे
डरेंगी बिल्लियाँ कुत्ते नए कोने तलाशेंगे
ये माना “मात का पूजन” करेंगे घर के सब मिल कर
कृपा होगी उसी पर माँ को जो दिल से तलाशेंगे
प्रदूषण खूब होगा “फेसबुक”, “ट्विटर” पे, “इन्स्टा” पर
बहाने फोड़ने के बम्ब सभी मिल के तलाशेंगे
तरीके रोज़-मर्रा ज़िन्दगी के सब विदेशी हैं
उजालों के लिए मिट्टी के फिर दिये तलाशेंगे
सफल हैं शोद्ध उनके, हैं वही स्टार्ट-अप सक्सेस
जो “ईको-फ्रेंडली” होने के कुछ मौके तलाशेंगे
हरी वर्दी पहन कर वादियों में सज के सब सैनिक
नज़र आती सभी चीज़ों में घर-वाले तलाशेंगे
विदेशों में दीवाली की महक मिल जाएगी उनको
कमाई से परे हट कर जो कुछ रिश्ते तलाशेंगे 


मतले में ही दीपावली का एकदम सटीक चित्र खींच दिया है। यह भी सच है कि इन दिनों प्रदूषण का असल रूप तो सोशल मीडिया पर ही दिखाई दे रहा है। उस प्रदूषण को अपने तरीके से उजागर करता हुआ शेर। उसके तुरंत बाद बहुत ही सुंदर तरीके से गिरह का शेर है। सच में हमारी ज़िंदगी में आजकल कुछ भी अपना नहीं है। मिट्टी के दीये ही शायद हमें अपनी जड़ों की तरफ़ लौटा सकें। हरी वर्दी में सजे हुए सैनिकों का हर किसी में अपने घर वालों को तलाश करना बहुत ही मार्मिक है। अंदर तक छू जाता है यह शेर। घर से दूर होने पर ही पता चलता है कि घर क्या होता है। अंतिम शेर दूर देश में बसे हुए लोगों के लिए एक सबक की तरह है। सच में जीवन का नाम ही होता है कुछ नए रिश्ते तलाश लेना। जहाँ नए रिश्ते मिल जाएँ वहीं तो दीपावली मन जाती है। बहुत सुंदर ग़ज़ल वाह वाह वाह ।

मन्सूर अली हाश्मी

पते और नाम हम तो देश भक्तों के तलाशेंगे
अभी तक चल रहे सिक्के हैं जो खोटे तलाशेंगे
उसे पाताल से ले कहकशाओं तक तलाशा है
हुए हैं ख़ुद ही गुम अब तो ख़ुदा कैसे तलाशेंगे।
न निकला नोटबंदी से न जीएसटी से हल कोई
धरोहर बेचकर अब तो नये रस्ते तलाशेंगे!
जो पहली थी उसे तो हमने पत्नी ही बना डाला
इलेक्शन अबकि जीते तो नई पी. ए. तलाशेंगे।
तरक़्क़ी की चमक भी तीरगी को न मिटा पाई
उजालों के लिए मिट्टी के फिर दीये तलाशेंगे।
सियासत भी तिजारत है क्रय-विक्रय भी मजबूरी
जो ख़ुद के बिक गये तो फिर नये घोड़े तलाशेंगे।
लिबासे आदमिय्यत रेज़ा:- रेज़ा: हो रहा देखो
बरहना हो लिये तो फिर नये कपड़े तलाशेंगे!
यहां बहरो की बस्ती है अबोलों की ज़रुरत है
ख़ला को पुर जो करना है तो फिर गूंगे तलाशेंगे!
बुरा शौचालयों का हो हुए हम दीद से महरुम
अलस्सुबह कभी ढेले उछाले थे, तलाशेंगे
जो सरकर्दा जुनूँ, बेताब यां दारो रसन भी है
यक़ीनन एक दूजे को ये शिद्दत से तलाशेंगे।
है हक़ गोई मुसलसिल और जुर्मे इश्क़ भी पैहम
तुम्हें भी 'हाशमी' दारो रसन फिर से तलाशेंगे।


एक ही ग़ज़ल में कई रंग दिखा देना हाशमी जी की पहचान है। यह पूरी ग़ज़ल व्यंग्य के तीखे तेवर लिए हुई है। मतले में ही किए गए प्रयोग खोटे सिक्के ने गहरा व्यंग्य कसा है। और अगले ही शेर में एक अनंत तलाश की थकन को अच्छे से व्यक्त किया गया है। नोटबंदी और जीएसटी के बाद अब देश का सब कुछ बेचा ही जा रहा है, बहुत अच्छा शेर। पत्नी और पीए वाला शेर तो अंदर तक गुदगुदा जाता है। यह हमारे समय की कड़वी सच्चाई भी है। गिरह का शेर सुंदर बन पड़ा है। तरक्की की चमक सच में किसी भी अंधेरे का कुछ भी नहीं कर पाती। लिबासे आदमियत में बरहना होने के बाद फिर से नए कपड़े तलाशने की बात बहुत अच्छे से कही गई है। और गूँगों की तलाश वाला शेर बहुत सारे अर्थ लिए है। अंतिम शेर और उसके बाद मकता दोनों जैसे मन को छू गए। बहुत ही सुंदर ग़ज़ल, वाह वाह वाह।

अभिनव शुक्ल
 
हमेशा पोंगा पण्डे और कठमुल्ले तलाशेंगे,
सियासतदान हैं! ये सारे हथकण्डे तलाशेंगे
अहा! मासूमियत है, भोलापन है, क्या क़यामत है,
करेला बोएंगे, फल खेत में मीठे तलाशेंगे
हमें पहले अंधेरों से तो बातें चार करने दो,
उजालों के लिए मिट्टी के फिर दीये तलाशेंगे
यहीं अब फोन पर बन्दूक लेकर खेल खेलेंगे,
गुब्बारे बेचने वाले को क्या बच्चे तलाशेंगे
हमारी अपनी सच्चाई, तुम्हारी अपनी सच्चाई,
हमें झूठे तलाशेंगे, तुम्हें सच्चे तलाशेंगे


मतले में ही हमारे समय की धर्म आधारित राजनीति को बहुत तीखे स्वर में व्यंग्य का शिकार बनाया है। और उसके बाद का ही शेर बहुत ही सुंदर प्रयोग के कारण अलग प्रभाव पैदा कर रहा है। मिसरा ऊला तो बोलता हुआ बन गया है। गिरह के शेर में बहुत ख़ूबसूरती के साथ तरही मिसरे में आए शब्द "फिर" का निर्वाह किया गया है। दिल ख़ुश कर दिया। मिसरा ऊला में आए शब्द "पहले" ने बहुत अच्छे से गिरह को सार्थक कर दिया है। और अगले शेर में एक और भावकु बात कह दी है। सच में अब किसी खेल-खिलौने वाले को कोई बच्चा नहीं तलाशता है। अब कोई खेल-खिलौने वाला आता भी नहीं है। अंतिम शेर में सच्चाई की बात को बहुत अलग तरीके से बात को कहा गया है, लेकिन कमाल का शेर बन पड़ा है वो। बहुत सुंदर ग़ज़ल वाह वाह वाह।


अंशुल तिवारी
 
भरी हो रौशनी जिनमें, वही किस्से तलाशेंगे,
उजालों के लिए मिट्टी के फिर दीये तलाशेंगे
बड़ी सड़कों के आगे जो गली में है बनी टपरी,
वहीं पर जा कभी खोये हुए रिश्ते तलाशेंगे
हुआ अर्सा के ख़ुद को रख चुके थे, एक कोने में,
है दीवाली तो आओ अपने ही हिस्से तलाशेंगे
बज़ाहिर रौशनी-ओ-रौनकें दुनिया में फैली हैं,
उजाला दिल में हो ऐसे दीये सच्चे तलाशेंगे
बड़ी कड़वाहटें हैं अब मिठाई में दुकानों की,
ज़रूरत है के घर में अब 'पुए' मीठे तलाशेंगे
कभी घर आओ मुँह मीठा करो, ये ज़हर थूको तो,
कभी तो बैठ सँग-सँग, दिन वही बीते तलाशेंगे
ज़माने को भरे दिखते हैं पर अंदर से ख़ाली हैं,
समय है तो, कहाँ हम रह गए रीते? तलाशेंगे
है मुश्किल काम पर इतना यकीं है, हो ही जाएगा,
इरादे ग़र सभी मिलकर, यहाँ सच्चे तलाशेंगे


मतले में ही गिरह को बहुत सुंदर तरीक़े से बाँधा गया है। सच में हम उन्हीं क़िस्सों को तो तलाशते हैं, जो रौशनी से भरे होते हैं। हुआ अर्सा के खुद को शेर में अपने ही हिस्सों की तलाश बहुत ही कमाल है। अगले शेर में जिन सच्चे दीपकों की बात की गई है, वे दीपक आज की सबसे बड़ी ज़रूरत हैं। इन दीपकों का ही प्रकाश असल होता है। मिठाई की दुकानों में रसायनों की कड़वाहट के बीच घर में बने हुए गुड़ के मीठे पुओं में जीवन का रस तलाशना ही जीवन का असल आनंद है। ज़माने भर को दिखते हैं भरे, बहुत ही भावुक कर देने वाला शेर है। बहुत सी कहानियाँ याद दिला देता है। कहानियाँ, जो बीत गईं हमको रीत करते हुए। यह शेर देर तक मन के अंदर गूँजता रहता है। अंतिम शेर भी बहुत सुंदर है। सकारात्मक ऊर्जा से भरा हुआ शेर। बहुत ही सुंदर ग़ज़ल कही है, वाह वाह वाह। 


आज मुशायरे में आदरणीय राकेश खंड़लवाल जी, दिगम्बर नासवा, मंसूर अली हाशमी, अभिनव शुक्ल और अंशुल तिवारी ने ख़ूब रंग जमा दिया है। आज रूप चतुर्दशी या छोटी दीपावली है, आज के दिन रूप और सौंदर्य का दिन होता है। आप सब दाद देते रहिए और इंतज़ार कीजिए अगले अंक का। 


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