Friday, October 25, 2019

आज मुशायरे में आदरणीय राकेश खंड़लवाल जी, दिगम्बर नासवा, मंसूर अली हाशमी, अभिनव शुक्ल और अंशुल तिवारी के साथ मनाते हैं रूप चतुर्दशी।


भारतीय संस्कृति में यह जो परिवार शब्द है, यह व्यापक अर्थों वाला शब्द है, इसे एकरेखीय नहीं कहा जा सकता। यह जब विस्तार में जाता है तो वहाँ तक पहुँचता है जहाँ ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ की बात आ जाती है। परिवार का यही विस्तार भारतीय संस्कृति को बाकी सारी सभ्यताओं, सारी संस्कृतियों से अलग करता है। यहाँ परिवार का अर्थ केवल रक्त संबंधों के कारण जुड़े हुए इन्सान नहीं होते, यहाँ वे सब जो भावनात्मक स्तर पर एक-दूसरे के साथ जुड़े हैं, वे भी परिवार का हिस्सा होते हैं। बहुत दिन नहीं हुए, जब हमारे यहाँ एक पूरा मोहल्ला, एक परिवार होता था। आज भी होता है, छोटे क़स्बों में, गाँवों में। और गहरे उतरेंगे तो पाएँगे कि अभी भी कहीं-कहीं कुछ गाँव या छोटे क़स्बे ऐसे मिल जाएँगे, जो पहले की ही तरह एक परिवार के रूप में जी रहे हैं। हम जितने एकाकी और जितने आत्मकेन्द्रित होते चले जाएँगे, हमारी समस्याएँ, हमारी पीड़ाएँ, हमारे कष्ट, उतने ही बढ़ते जाएँगे। मतलब यह कि हमारे जीवन में अंधकार उतना ही बढ़ता चला जाएगा। चेतना के स्तर पर हम इतने निरीह होते जाएँगे कि हमें सूझेगा भी नहीं कि अंधकार का क्या किया जाए ? तब वे सब जो हमारा परिवार हैं, उनकी ज़रूरत हमें शिद्दत से महसूस होगी। अंधकार हमेशा आत्मकेन्द्रित होता है और प्रकाश हमेशा विस्तार पाने के प्रयास में लगा रहता है, हर उस कोने में पहुँचने के प्रयास में जहाँ अभी भी अँधेरा है। प्रकाश के लिए सचमुच ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ ही परिवार होता है। हम अपनी समस्याओं का अंधेरा लिए जब अपने परिवार के पास लौटते हैं, तो हम देखते हैं कि हमारे उस परिवार का हर सदस्य विश्वास के तेल में भीगी हुई प्रेम की बाती से प्रकाशित दीपक लिए हमारे पास आकर खड़ा हो गया है, हम अपने अंदर उस प्रकाश की उजास को महसूस करते हैं।

उजालों के लिए मिट्टी के फिर दीये तलाशेंगे

 

राकेश खण्डेलवाल
 
कभी संध्या में जलते हैं किसी की याद के दीपक
कभी विरहा में जलते हैं किसी के नाम के दीपक
कभी राहों के खंडहर में कभी इक भग्न मंदिर में
कोई आकर जला जाता किशन के राम के दीपक
मगर जो राज राहों पर घिरे बादल अँधेरे के
कोई भी रख नहीं पाता उजाले को कोई दीपक
चलो निश्चित करें हम आज, गहरा तम मिटा देंगे
उजालों के लिए मिट्टी के फिर दीये तलाशेंगे

जले हैं कुमकमे अनगिन कहीं बुर्जों मूँडेरो पर
उधारी रोशनी लेकर, जली जो कर्ज ले ले कर
कहीं से बल्ब आए हैं कहीं से ऊर्जा आई
चुकाई क़ीमतें जितनी बहुत ज्यादा हैं दुखदाई
किसे मालूम लड़ पाएँ ये कितनी देर तक तम से
टिके बैसाखियों पर बोझ ये कितना उठा लेंगे
चलें लौटें जड़ों की ओर, हमें विश्वास है जिन पर
उजालों के लिए मिट्टी के फिर दीये तलाशेंगे

बहत्तर वर्ष बीते हैं मनाते यूं ही दीवाली
न खीलें हैं बताशे हैं रही फिर जेब भी खाली
कहानी फिर सूनी वो ही, कि कल आ जाएगी लक्ष्मी
बसन्ती दूज फिर होगी सुनहरे रंग की नवमी
सजेगा रूप चौदस को, त्रयोदश लाए आभूषण
खनकते पायलों - कंगन के सपने कितने पालेंगे
चलें बस लौट घर अपने, वहीँ बीतेंगे अपने दिन
उजाले के लिए मिट्टी के फिर दीपक जला लेंगे 


राकेश जी के गीत हर वर्ष दीपावली के उत्सव में चार चाँद लगा देते हैं। और सबसे अच्छी बात यह है कि उनके एक से भी अधिक गीत प्राप्त होते हैं, जो लगातार हमारे पूरे दीपोत्सव में हमारे साथ रहते हैं। इस बार की गीत बहुत प्रेमिल भावों से भरा हुआ है। किसी की यादों के दीपक जो जीवन में सदैव जलते रहते हैं, जीवन के अँधेरों को उनसे ही रौशनी मिलती है। जले हैं कुमकुमे में हम सब के जीवन का एक कड़वा सत्य सामने आया है। उधारी रौशनी के रूप में एक नया प्रयोग करते हुए मानों हमें चेताया गया है और कहा गया है कि जड़ों की तरफ़ लौटने में ही भलाई है। अंतिम बंद बहुत भावुक कर देने वाला है। लौटना एक ऐसी प्रक्रिया है, जो सब चाहते हैं, किन्तु यह प्रक्रिया कभी पूरी नहीं हो पाती। सब चाहते हैं कि खनकते पायलों और कंगनों के पास लौटें। बहुत ही सुंदर गीत है । वाह वाह वाह।

दिगम्बर नासवा


पटाखों की नई किस्मों को फिर बच्चे तलाशेंगे
डरेंगी बिल्लियाँ कुत्ते नए कोने तलाशेंगे
ये माना “मात का पूजन” करेंगे घर के सब मिल कर
कृपा होगी उसी पर माँ को जो दिल से तलाशेंगे
प्रदूषण खूब होगा “फेसबुक”, “ट्विटर” पे, “इन्स्टा” पर
बहाने फोड़ने के बम्ब सभी मिल के तलाशेंगे
तरीके रोज़-मर्रा ज़िन्दगी के सब विदेशी हैं
उजालों के लिए मिट्टी के फिर दिये तलाशेंगे
सफल हैं शोद्ध उनके, हैं वही स्टार्ट-अप सक्सेस
जो “ईको-फ्रेंडली” होने के कुछ मौके तलाशेंगे
हरी वर्दी पहन कर वादियों में सज के सब सैनिक
नज़र आती सभी चीज़ों में घर-वाले तलाशेंगे
विदेशों में दीवाली की महक मिल जाएगी उनको
कमाई से परे हट कर जो कुछ रिश्ते तलाशेंगे 


मतले में ही दीपावली का एकदम सटीक चित्र खींच दिया है। यह भी सच है कि इन दिनों प्रदूषण का असल रूप तो सोशल मीडिया पर ही दिखाई दे रहा है। उस प्रदूषण को अपने तरीके से उजागर करता हुआ शेर। उसके तुरंत बाद बहुत ही सुंदर तरीके से गिरह का शेर है। सच में हमारी ज़िंदगी में आजकल कुछ भी अपना नहीं है। मिट्टी के दीये ही शायद हमें अपनी जड़ों की तरफ़ लौटा सकें। हरी वर्दी में सजे हुए सैनिकों का हर किसी में अपने घर वालों को तलाश करना बहुत ही मार्मिक है। अंदर तक छू जाता है यह शेर। घर से दूर होने पर ही पता चलता है कि घर क्या होता है। अंतिम शेर दूर देश में बसे हुए लोगों के लिए एक सबक की तरह है। सच में जीवन का नाम ही होता है कुछ नए रिश्ते तलाश लेना। जहाँ नए रिश्ते मिल जाएँ वहीं तो दीपावली मन जाती है। बहुत सुंदर ग़ज़ल वाह वाह वाह ।

मन्सूर अली हाश्मी

पते और नाम हम तो देश भक्तों के तलाशेंगे
अभी तक चल रहे सिक्के हैं जो खोटे तलाशेंगे
उसे पाताल से ले कहकशाओं तक तलाशा है
हुए हैं ख़ुद ही गुम अब तो ख़ुदा कैसे तलाशेंगे।
न निकला नोटबंदी से न जीएसटी से हल कोई
धरोहर बेचकर अब तो नये रस्ते तलाशेंगे!
जो पहली थी उसे तो हमने पत्नी ही बना डाला
इलेक्शन अबकि जीते तो नई पी. ए. तलाशेंगे।
तरक़्क़ी की चमक भी तीरगी को न मिटा पाई
उजालों के लिए मिट्टी के फिर दीये तलाशेंगे।
सियासत भी तिजारत है क्रय-विक्रय भी मजबूरी
जो ख़ुद के बिक गये तो फिर नये घोड़े तलाशेंगे।
लिबासे आदमिय्यत रेज़ा:- रेज़ा: हो रहा देखो
बरहना हो लिये तो फिर नये कपड़े तलाशेंगे!
यहां बहरो की बस्ती है अबोलों की ज़रुरत है
ख़ला को पुर जो करना है तो फिर गूंगे तलाशेंगे!
बुरा शौचालयों का हो हुए हम दीद से महरुम
अलस्सुबह कभी ढेले उछाले थे, तलाशेंगे
जो सरकर्दा जुनूँ, बेताब यां दारो रसन भी है
यक़ीनन एक दूजे को ये शिद्दत से तलाशेंगे।
है हक़ गोई मुसलसिल और जुर्मे इश्क़ भी पैहम
तुम्हें भी 'हाशमी' दारो रसन फिर से तलाशेंगे।


एक ही ग़ज़ल में कई रंग दिखा देना हाशमी जी की पहचान है। यह पूरी ग़ज़ल व्यंग्य के तीखे तेवर लिए हुई है। मतले में ही किए गए प्रयोग खोटे सिक्के ने गहरा व्यंग्य कसा है। और अगले ही शेर में एक अनंत तलाश की थकन को अच्छे से व्यक्त किया गया है। नोटबंदी और जीएसटी के बाद अब देश का सब कुछ बेचा ही जा रहा है, बहुत अच्छा शेर। पत्नी और पीए वाला शेर तो अंदर तक गुदगुदा जाता है। यह हमारे समय की कड़वी सच्चाई भी है। गिरह का शेर सुंदर बन पड़ा है। तरक्की की चमक सच में किसी भी अंधेरे का कुछ भी नहीं कर पाती। लिबासे आदमियत में बरहना होने के बाद फिर से नए कपड़े तलाशने की बात बहुत अच्छे से कही गई है। और गूँगों की तलाश वाला शेर बहुत सारे अर्थ लिए है। अंतिम शेर और उसके बाद मकता दोनों जैसे मन को छू गए। बहुत ही सुंदर ग़ज़ल, वाह वाह वाह।

अभिनव शुक्ल
 
हमेशा पोंगा पण्डे और कठमुल्ले तलाशेंगे,
सियासतदान हैं! ये सारे हथकण्डे तलाशेंगे
अहा! मासूमियत है, भोलापन है, क्या क़यामत है,
करेला बोएंगे, फल खेत में मीठे तलाशेंगे
हमें पहले अंधेरों से तो बातें चार करने दो,
उजालों के लिए मिट्टी के फिर दीये तलाशेंगे
यहीं अब फोन पर बन्दूक लेकर खेल खेलेंगे,
गुब्बारे बेचने वाले को क्या बच्चे तलाशेंगे
हमारी अपनी सच्चाई, तुम्हारी अपनी सच्चाई,
हमें झूठे तलाशेंगे, तुम्हें सच्चे तलाशेंगे


मतले में ही हमारे समय की धर्म आधारित राजनीति को बहुत तीखे स्वर में व्यंग्य का शिकार बनाया है। और उसके बाद का ही शेर बहुत ही सुंदर प्रयोग के कारण अलग प्रभाव पैदा कर रहा है। मिसरा ऊला तो बोलता हुआ बन गया है। गिरह के शेर में बहुत ख़ूबसूरती के साथ तरही मिसरे में आए शब्द "फिर" का निर्वाह किया गया है। दिल ख़ुश कर दिया। मिसरा ऊला में आए शब्द "पहले" ने बहुत अच्छे से गिरह को सार्थक कर दिया है। और अगले शेर में एक और भावकु बात कह दी है। सच में अब किसी खेल-खिलौने वाले को कोई बच्चा नहीं तलाशता है। अब कोई खेल-खिलौने वाला आता भी नहीं है। अंतिम शेर में सच्चाई की बात को बहुत अलग तरीके से बात को कहा गया है, लेकिन कमाल का शेर बन पड़ा है वो। बहुत सुंदर ग़ज़ल वाह वाह वाह।


अंशुल तिवारी
 
भरी हो रौशनी जिनमें, वही किस्से तलाशेंगे,
उजालों के लिए मिट्टी के फिर दीये तलाशेंगे
बड़ी सड़कों के आगे जो गली में है बनी टपरी,
वहीं पर जा कभी खोये हुए रिश्ते तलाशेंगे
हुआ अर्सा के ख़ुद को रख चुके थे, एक कोने में,
है दीवाली तो आओ अपने ही हिस्से तलाशेंगे
बज़ाहिर रौशनी-ओ-रौनकें दुनिया में फैली हैं,
उजाला दिल में हो ऐसे दीये सच्चे तलाशेंगे
बड़ी कड़वाहटें हैं अब मिठाई में दुकानों की,
ज़रूरत है के घर में अब 'पुए' मीठे तलाशेंगे
कभी घर आओ मुँह मीठा करो, ये ज़हर थूको तो,
कभी तो बैठ सँग-सँग, दिन वही बीते तलाशेंगे
ज़माने को भरे दिखते हैं पर अंदर से ख़ाली हैं,
समय है तो, कहाँ हम रह गए रीते? तलाशेंगे
है मुश्किल काम पर इतना यकीं है, हो ही जाएगा,
इरादे ग़र सभी मिलकर, यहाँ सच्चे तलाशेंगे


मतले में ही गिरह को बहुत सुंदर तरीक़े से बाँधा गया है। सच में हम उन्हीं क़िस्सों को तो तलाशते हैं, जो रौशनी से भरे होते हैं। हुआ अर्सा के खुद को शेर में अपने ही हिस्सों की तलाश बहुत ही कमाल है। अगले शेर में जिन सच्चे दीपकों की बात की गई है, वे दीपक आज की सबसे बड़ी ज़रूरत हैं। इन दीपकों का ही प्रकाश असल होता है। मिठाई की दुकानों में रसायनों की कड़वाहट के बीच घर में बने हुए गुड़ के मीठे पुओं में जीवन का रस तलाशना ही जीवन का असल आनंद है। ज़माने भर को दिखते हैं भरे, बहुत ही भावुक कर देने वाला शेर है। बहुत सी कहानियाँ याद दिला देता है। कहानियाँ, जो बीत गईं हमको रीत करते हुए। यह शेर देर तक मन के अंदर गूँजता रहता है। अंतिम शेर भी बहुत सुंदर है। सकारात्मक ऊर्जा से भरा हुआ शेर। बहुत ही सुंदर ग़ज़ल कही है, वाह वाह वाह। 


आज मुशायरे में आदरणीय राकेश खंड़लवाल जी, दिगम्बर नासवा, मंसूर अली हाशमी, अभिनव शुक्ल और अंशुल तिवारी ने ख़ूब रंग जमा दिया है। आज रूप चतुर्दशी या छोटी दीपावली है, आज के दिन रूप और सौंदर्य का दिन होता है। आप सब दाद देते रहिए और इंतज़ार कीजिए अगले अंक का। 


उजालों के लिए मिट्टी के फिर दीये तलाशेंगे


मित्रों एक बार फिर से दीपावली का यह त्यौहार सामने आ गया है। भारतीय संस्कृति में परिवार को सबसे महत्त्वपूर्ण इकाई माना गया है। परिवार की धुरी के आस-पास ही सभ्यता की, संस्कृति की, समाज की परिकल्पना की गई है। दुनिया के किसी दूसरे देश, या किसी दूसरी संस्कृति में परिवार की इतनी प्रधानता नहीं दिखाई देती। इसी परिवार को केन्द्र में रखकर हमारे यहाँ त्यौहारों का निर्धारण किया गया। त्यौहार, जिनके आगमन के साथ ही सारा परिवार एक साथ होने का प्रयास करता है। परदेश गए हुए सदस्य लौटने का प्रयास करते हैं, कि त्यौहार आ रहा है। यह जो लौटना और फिर से एकत्र होना है, यही शायद त्यौहारों का मूल काम है। इसीलिए वर्ष में एक निश्चित अंतराल के बाद कोई न कोई त्यौहार आ जाता है। और उसमें भी सबसे विशिष्ट और सबसे बड़ा त्यौहार दीवापली का त्यौहार। बाकी सारे त्यौहार ‘होली’, ‘रक्षा बंधन’ जहाँ पूरे चाँद की जगमग रात में आते हैं, वहाँ यह एकमात्र ऐसा त्यौहार है जो घोर तमस में डूबी अमावस की रात में आता है, और रात में ही मनाया जाता है। कैसा विरोधाभास है कि सबसे गहन अंधकार में डूबी रात को ही कहा जाता है ‘प्रकाश पर्व’। और यह प्रकाश पर्व मनाया भी कैसे जाता है ? पूरा परिवार एक साथ एकत्र होकर उस अँधेरी रात को दीपकों के प्रकाश से रोशन करता है। चुनौती देता है अँधेरे को कि ‘‘हम एक साथ हैं, और एक साथ ही तेरे इस स्याह साम्राज्य से लड़ रहे हैं, लड़ रहे हैं अपने हाथों में प्रकाश के ध्वजवाहक दीपकों को लेकर।’’ बहुत गहरे में उतर कर अगर इसका अर्थ निकाला जाए, तो बात वही सामने आती है कि जीवन में हमेशा सूर्य के प्रकाश से भरे हुए दिन तथा चंद्रमा की शीतल चाँदनी से भरी हुई रातें नहीं होती, कभी-कभी अँधेरा भी होता है, घना और गहरा अँधेरा। जब अँधेरा घिर आए तो फिर सबको एक साथ खड़ा होना पड़ता है, फिर ये लड़ाई सबकी हो जाती है। दीपक वास्तव में प्रतीक होते हैं हमारे संकल्प के, वह संकल्प जो पूरा परिवार लेता है, और संकल्प यह होता है कि हम सारे सदस्य जो परिवार का हिस्सा हैं, अब हम में से कोई भी एक अलग इकाई नहीं है, यदि किसी एक पर अँधेरा गहरा रहा है, तो दीपक हम सब के हाथों में होगा, चुनौती हम सब की तरफ़ से प्रस्तुत की जाएगी। चूँकि सब को एक साथ होना है, इसलिए सब लौट आते थे, और आज भी लौट आते हैं वापस अपने घर, कि दीपावली आ गई है। इसी तरह हम सब भी लौटते हैँ अपने इस ब्लॉग पर हर त्यौहार पर। साल भर अपनी-अपनी व्यस्तताओं में उलझे रहते हैं और फिर जैसे याद आने पर आ जाते हैं यहाँ।

  उजालों के लिए मिट्टी के फिर दीये तलाशेंगे



राकेश खंडेलवाल

    
करेंगे मेजबानी कब तलक छाए अंधेरों की
भला कब रूढ़ियों के चक्र से ख़ुद को निकालेंगे
भले ही भूल बैठा हो दिशा इस ओर की सूरज
उजालों के लिए मिट्टी के फिर दीये तलाशेंगे

नए फिर थाम कर निश्चय कमर कस कर के तत्पर हो
नए संकल्प हम लेकर बना लेंगे दिशा अपनी
नहीं है शेष आशा की अपेक्षा हुक्मरानों से
हुए जो खोखले वायदे न बनते नींव सपनों की

नए निश्चय हमारे हैं नयीं राहें बना लेंगे
उजालों के लिए मिट्टी का फिर दीपक जला लेंगे

सहारा ढूँढने की जो हमें अब तक बिमारी ही
उसी को तो भुनाते हैं हमारे ही चुने शासक
शिकायत, हाथ फैलाना, कोई दे दे मदद हमको
हमारी उन्नति में हो गया सबसे बड़ा बाधक

अगर हम तोड़ कर रेखा, क़दम अपने बढ़ा लेंगे
उजाले तब स्वयं आकर हमारा पथ सज़ा देंगे

बहुत दिन हो चुके, इक नींद में संवाद सेवा थी
उठी अँगड़ाइयाँ लेकर अमावस के अंधेरों में
अगर ये व्यस्तताओं का कलेवर जो तनिक उतरे
नहीं फिर देर लग पाए, नए उगते सवेरों में

यहाँ आ गीत-ग़ज़लें नित नई शमअ जला लेंगे
उजालों के लिए मिट्टी के फिर दीये तलाशेंगे।


राकेश जी का इस ब्लॉग के प्रति प्रेम और लगाव मन को नम कर देता है। वे हमेशा पूछते रहते हैं कि इस बार तरही का मिसरा नहीं दिया गया। और जब तरही का आयोजन होता है तो उनकी एक के बाद एक रचनाएँ प्राप्त होना शुरू हो जाती हैं। इस बार भी वे तीनों अंकों में उपस्थित रहेंगे। सबसे पहले उनके इस सकारात्मक ऊर्जा से भरे हुए गीत से ही हम दीपावली की शुरूआत करते हैं। भले ही भूल बैठा हो दिशा इस ओर की सूरज, उजालों के लिए मिट्टी के फिर दीये तलाशेंगे, वाह क्या बात है। जैसे हमारे पूरे समय को दो पंक्तियों में समेट दिया गया हो। सूरज की प्रतीक्षा नहीं करने की बात और आत्म दीपो भव की बात जैसे इस गीत की आत्मा है। नए निश्चयों की बात एकदम चुनौती के रूप में पहले बंद में सामने आ रही है। दूसरे बंद में किसी की मदद का इंतज़ार नहीं करने की बात को क्या सुंदर तरीक़े से कहा है - सहारा ढूँढने की जो हमें अब तक बिमारी ही,  उसी को तो भुनाते हैं हमारे ही चुने शासक। वाह वाह क्या बात है। और अंतिम बंद जैसे एक नई सुबह की बात कर रहा है - अगर ये व्यस्तताओं का कलेवर जो तनिक उतरे,  नहीं फिर देर लग पाए, नए उगते सवेरों में। इससे शानदार शुरूआत भला और क्या हो सकती है तरही की। राकेश जी का यह सुंदर गीत तरही को नई ऊँचाइयों पर पहुँचा रहा है। वाह वाह वाह।

    


अश्विनी रमेश

    

नया जीवन नयी दुनिया नये सपने तलाशेंगे
समझते हों हमें जो लोग वो अच्छे तलाशेंगे
अजब है ज़िन्दगी बाज़ार होती जा रही हर शय
इस अँधी दौड़ से हटकर सुकूँ  बच्चे तलाशेंगे
अंधेरा हो भले संघर्ष कर आगे बढ़ेंगे हम
उजालों के लिए मिट्टी के फिर दीये तलाशेंगे  
उदासी ज़िन्दगी में घेर पाएगी न हमको यूं
नयी आशा नए आयाम जीने के तलाशेंगे 
बुरा है दौर फिर भी बीत जायेगा सँभल लेंगे
सलीके कुछ मुसीबत से उबरने के तलाशेंगे
हमारा वक़्त तो आखिर तनावों से भरा ठहरा
सदा अपना सुकूँ पाने खुदा बन्दे तलाशेंगे
समझ लेना नहीं आसान है खुद को मगर फिर भी
मिलेगा खोजकर कुछ खुद को अगर गहरे तलाशेंगे
मुखोटों में छिपे चेहरे डराने अब लगे हमको
बची मासूमियत जिनमें नए चेहरे तलाशेंगे
ललक अब भी हमारे में नया कुछ कर लिया जाए
पकड़कर राह सत की हम नए हीरे तलाशेंगे


अश्विनी रमेश जी की ग़जल हर बार कुछ नये प्रयोगों को साथ लाती है। इस बार भी उनकी ग़ज़ल जैसे अपने समय को चुनौती दे रही है। चुनौती इस बात की कि हम हारे नहीं हैं और ना ही थके हैं। हमारे लिए संघर्ष जीवन भर का है। बाज़ार में घिरे हुए हमारे बच्चों का सुकूँ तलाशने का विचार बहुत अच्छा है, काश हमारे बच्चों को बाज़ार की दौड़ से कुछ सुकूं मिले। अंधेरों की चुनौती को स्वीकार कर उजालों की तलाश करना ही अगले शेर का मुख्य भाव बन गई है। उदासी से पार पाकर नई आशा और नए आयामों की तलाश बहुत अच्छे से शेर में ढल गई है। और स्वयं को तलाश करने का शेर तो जैसे कमाल ही बन पड़ा है गहरे उतर कर स्वयं की तलाश करना ही तो जीवन है। और हमारे समय की सबसे बड़ी पीड़ा कि कुछ चेहरे मुखौटे के पीछे छिपे हैं। नए चेहरों की तलाश करने के लिए हम सबको आगे बढ़ना ही होगा। बहुत ही सुंदर ग़ज़ल कही है अश्विनी रमेश जी ने। बहुत ख़ूब वाह वाह वाह।



बासुदेव अग्रवाल 'नमन'

    
बढ़े ये देश जिन पर रास्ते हम वे तलाशेंगे।
समस्याएँ अगर इसमें तो हल मिल के तलाशेंगे।
स्वदेशी वस्तुएं अपना के होंगे आत्मनिर्भर हम,
उजालों के लिए मिट्टी के फिर दीये तलाशेंगे।
महक खुशियों की बिखराने वतन में हम बढ़ेंगे सब,
हटा के ख़ार राहों के, खिले गुंचे तलाशेंगे।
सकें रख ये वतन जिस एकता की डोर में बाँधा,
उसी डोरी के सब मजबूत हम धागे तलाशेंगे।
पुजारी अम्न के हम तो सदा से रहते आये हैं,
जहाँ हो शांति की पूजा वे बुतख़ाने तलाशेंगे।
सही इंसानों से रिश्तों को रखना कामयाबी है,
बड़ी शिद्दत से हम रिश्ते सभी ऐसे तलाशेंगे।
अगर बाकी कहीं है मैल दिल में कुछ किसी से तो,
मिटा पहले ये रंजिश राब्ते अगले तलाशेंगे।
पराये जिनके अपने हो चुके, लाचार वे भारी,
बनें हम छाँव जिनकी वे थकेहारे तलाशेंगे।
बधाई दीपमाला की, यही उम्मीद आगे है,
'नमन' फिर से यहाँ मिलने के सब मौके तलाशेंगे।


वाह क्या मतला है। एकदम सकारात्मक ऊर्जा से भरा हुआ मतला। समस्याओं का हल मिल कर तलाशने की बात बहुत सुंदर है। और अगले ही शेर में बहुत ही कमाल की गिरह बांधी गई है। स्वदेशी के आंदोलन को जिसकी शुरूआत गांधी जी ने की थी, उसे इस प्रकार भी गिरह में बांधा जा सकता है वाह वाह। कांटों को हटा कर फूलों की तलाश करना ही तो देशप्रेम है जो अगले शेर में बख़ूबी व्यक्त हो रहा है। वतन को मज़बूत रखने के लिए पक्के धागों की तलाश करता अगला शेर भी ख़ूब बना है। सबसे पहले दिल के मैल को, नफ़रत को हटाकर उसके बाद अगले राब्ते तलाश करना ही तो आज मानवता के लिए सबसे बड़ा काम है। इस बात को बहुत ही सुंदर तरीके से शेर में गूँथ दिया गया है। और मकते का शेर तो जैसे आँखें नम कर देता है। सच में हर वर्ष यही उम्मीद करना कि अगले साल हम सब फिर मिलेंगे मिलते रहेंगे बस यही उम्मीद है। मौके तलाशने की बात कमाल है। सुंदर ग़ज़ल वाह वाह वाह।



निर्मल सिद्धू

    
दिवाली आयेगी जब-जब निशां उनके तलाशेंगे
मुहब्बत के वही हम दौर फिर पिछले तलाशेंगे
सजेगा हर गली कूचा नये अरमां लिये दिल में
दिवाने होके सब अपने सभी सपने तलाशेंगे
चलेगी हर तरफ़ आतिश मचेगी धूम हर आंगन
जो घर-घर की बनें रौनक वही नग़्मे तलाशेंगे
भले हों पास अपने आजकल लाखों तरीके पर
उजालों के लिये मिट्टी के फिर दीये तलाशेंगे
सितारों से उतर आने लगे ख़ुशियों के पल अब तो
मनाने को ख़ुशी पर जाम ना टूटे तलाशेंगे
भुला के रंज-ओ-ग़म सारे मिला के हाथ निर्मल से
चलेंगे साथ जब मिलकर क़दम पक्के तलाशेंगे


वाह इससे सुंदर बात क्या हो सकती है कि जब-जब उनके निशां तलाशे जाएँगे तब ही यादों की दीवाली मन जाएगी। मोहब्बतों के दौर पिछले तलाशने की बात ख़ूब कही है। अगले ही शेर में जिन नए अरमानों की बात कही गई है वही तो हम के सपनों के रूप में हामरी आँखों में बसते हैं। आँगनों को सजा देने के बाद हम तलाश करते हैं गीत की संगीत की। और यहाँ इस शेर में भी उन नग्मों की तलाश की बात है, जो हर आँगन में गूँजें। जब हम सब थक जाते हैं ऊब जाते हैं, तभी तो लौटते हैं हम अपनी जड़ों की तरफ़ और उसी बात को बहुत अच्छे से गिरह का शेर कह रहा है। सच में जब भी हम एकरसता से ऊब जाते हैं तभी तो हम लौटते हैं कि चलो अब मिट्टी की दीपकों की तलाश की जाए। जब सारे ग़म और सारे दुख भुला दिए जाएँ और उसके बाद हम सबके हाथ एक दूसरे के हाथों में होंगे तभी तो हम सब के कदम पक्के होंगे। बहुत ही सुंदर ग़ज़ल वाह वाह वाह।



सुलभ जायसवाल

    
नदी झरने परी जंगल के हर किस्से तलाशेंगे,
कहानी और किस्सो में छुपे बच्चे तलाशेंगे।
सँवारा था करीने से मेरे माथे की जुल्फों को,
बड़ी बुआ के उस फोटो में हम रिश्ते तलाशेंगे।
कलम कागज़ नहीं छेनी हथौड़ा भी नही फिर तो
सदी इक्कीसवीं में वह छुरी भाले तलाशेंगे।
कहीं पानी बहुत ज्यादा मवेशी डूबते मरते
कहीं सूखा न आ जाए कि हम कौवे तलाशेंगे।
वो ठेकेदार अभियंता नगर परमुख या मुखिया हो
घुसे पानी जहाँ घर में वे तब नाले तलाशेंगे।
वो जिनके खून में हैवानियत नफरत के कीड़े हों
मिटाने रोग उनके हम नये टीके तलाशेंगे।
सजे बाज़ार चौराहे भले कितने ही बल्बों से
उजालों के लिए मिट्टी के फिर दीये तलाशेंगे।
मोबाइल संग हर लम्हे ये कैसे रोग पाले हैं
कभी इकदिन पड़ौसी के हमी काँधे तलाशेंगे।
गली सड़कें हैं पक्की और यहाँ बिजली के खम्भे हैं
'सुलभ' फिर क्यों वहाँ दिल्ली में हम पैसे तलाशेंगे।


सुलभ की भी आदत है ग़ज़लों में एकदम नए प्रयोग करने की। इस बार भी सुलभ ने एकदम नए तरीक़े से अपनी ग़ज़ल को कहा है। मतले का शेर ही जैसे आँखें नम कर देता है। सच में हम अब तो उम्र भर उन्हीं बच्चों की तलाश करेंगे, जो कहानी और किस्सों में छिपे हैं। अगला ही शेर नम आँखों से आँसू को बहने पर मजबूर कर देता है। बड़ी बुआ का वह फोटो हम सब के पास है। बहुत ही कमाल का शेर कहा है। सच कहा है अगले शेर में कि अब जब आने वाले समय में कलम कागज नहीं होगा तो सच में हमारे बच्चे छुरी भाले ही तो तलाशेंगे। गिरह का शेर भी बहुत ही सुंदर बना है सच में कितने ही बल्बों की झालरें लगी हों, लेकिन हम तो तलाशते हैं उन्हीं मिट्टी के दीपकों को। मकते का शेर गाँव से शहर की तरफ़ हो रहे पलायन को रोकने के लिए बहुत अच्छे प्रतीक के रूप में सामने आया है। यही बात सबको समझनी होगी। बहुत ही सुंदर ग़ज़ल, वाह वाह वाह।


आज मुशायरे का बहुत ही कमाल आगाज़ आदरणीय राकेश खंड़लवाल जी, अश्विनी रमेश जी, वासुदेव अग्रवान नमन जी, निर्मल सिद्धू जी और सुलभ जायसवाल ने किया है। आज धनतेरस है, आज के दिन से ही दीपावली प्रारंभ हो जाती है। तो आज इन पाँचों रचनाकारों ने मिलकर दीपावली के आ ही जाने का एहसास करवा दिया है। तरही का रंग छा गया है आप सब दाद देते रहिए और इंतज़ार कीजिए अगले अंक का।

Wednesday, October 2, 2019

शिवना साहित्यिकी का वर्ष : 4, अंक : 15 त्रैमासिक : अक्टूबर-दिसम्बर 2019

मित्रों, संरक्षक एवं सलाहकार संपादक, सुधा ओम ढींगरा Sudha Om Dhingra , प्रबंध संपादक नीरज गोस्वामी Neeraj Goswamy , कार्यकारी संपादक, शहरयार Shaharyar Amjed Khann , सह संपादक पारुल सिंह Parul Singh के संपादन में शिवना साहित्यिकी का वर्ष : 4, अंक : 15 त्रैमासिक : अक्टूबर-दिसम्बर 2019 का वेब संस्करण अब उपलब्ध है। इस अंक में शामिल है- आवरण कविता / भगवत रावत Pragya Rawat , संपादकीय / शहरयार, व्यंग्य चित्र / काजल कुमार Kajal Kumar , साक्षात्कार - गीताश्री Geeta Shree से पारुल सिंह Parul Singh की बातचीत, पुस्तक चर्चा- हिंदी वृहद् व्याकरण कोश, सचिन तिवारी / डॉ. के.आर. महिया एवं डॉ. विमलेश शर्मा, कहाँ हो तुम / डॉ. रामसिया शर्मा Ramsiya Sharma / भावना भट्ट Bhavna Bhatt , काव्य मंजरी / संदीप सरस Sandeep Saras / सुरेश सौरभ @suresh saurabh , उपनिषद की कहानियाँ / सचिन तिवारी / डॉ. पन्ना प्रसाद। पुस्तक समीक्षा- मन्नत टेलर्स, वंदना वाजपेयी Vandana Bajpai / प्रज्ञा Pragya Rohini, ग़ाफ़िल, प्रकाश कांत Prakash Kant / सुनील चतुर्वेदी Sunil Chaturvedi, पालतू बोहेमियन, कमलेश पाण्डेय Kamlesh Pandey / प्रभात रंजन Prabhat Ranjan , झरोखा, अपर्णा भटनागर / पंकज त्रिवेदी Pankaj Trivedi , चौधराहट, नीलोत्पल रमेश @nilotpal ramesh / जयनंदन Jai Nandan , कितने अभिमन्यु, वेदप्रकाश अमिताभ @ved prakash amitabh / योगेंद्र शर्मा Yogendra Sharma , जागती आँखों का सपना, डॉ. रमाकांत शर्मा / मंजुश्री Manju Shri , कच्चा रंग, डॉ. अनीता कपूर Anita Kapoor / डॉ. पल्लवी शर्मा Pallavi Sharma , नव अर्श के पाँखी, सुभाष काबरा @subhash kabra / अनुपमा श्रीवास्तव अनु श्री अनु श्री, यादों के दरीचे, माधुरी / प्रभाशंकर उपाध्याय @prabhashankar upadhyay , चुप्पियों के बीच नीरज नीर Neeraj Neer / डॉ. भावना कुमारी @bhawna kumari । शोध आलेख- गांधी की पत्रकारिता का भारतीय मॉडल डॉ. कमल किशोर गोयनका Kamal Kishore Goyanka । फ़िल्म समीक्षा- मेकिंग आफ महात्मा, वीरेन्द्र जैन Virendra Jainn / निर्देशकः श्याम बेनेगल। केंद्र में पुस्तक- जिन्हें जुर्म-ए-इश्क़ पे नाज़ था, पंकज पराशर Pankaj Parashar , मनीषा कुलश्रेष्ठ Manisha Kulshreshtha , शुभम तिवारी Shubham Tiwari , ब्रजेश राजपूत Brajesh Rajput , कविता वर्मा Kavita Verma , दिनेश पाल Dinesh Pal । लेखक : पंकज सुबीर। आवरण चित्र राजेंद्र शर्मा बब्बल गुरू, डिज़ायनिंग सनी गोस्वामी Sunny Goswamii। आपकी प्रतिक्रियाओं का संपादक मंडल को इंतज़ार रहेगा। पत्रिका का प्रिंट संस्करण भी समय पर आपके हाथों में होगा।
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"विभोम-स्वर" का वर्ष : 4, अंक : 15, त्रैमासिक : अक्टूबर-दिसम्बर 2019 अंक का वेब संस्करण

मित्रो, संरक्षक तथा प्रमुख संपादक सुधा ओम ढींगरा Sudha Om Dhingra एवं संपादक पंकज सुबीर Pankaj Subeer के संपादन में वैश्विक हिन्दी चिंतन की अंतर्राष्ट्रीय पत्रिका "विभोम-स्वर" का वर्ष : 4, अंक : 15, त्रैमासिक : अक्टूबर-दिसम्बर 2019 अंक का वेब संस्करण अब उपलब्ध है। इस अंक में शामिल है- संपादकीय। मित्रनामा। साक्षात्कार -डॉ. हंसा दीप Hansa Deep से सुधा ओम ढींगरा की बातचीत। कथा कहानी- दुर्गा- विवेक मिश्र Vivek Mishra , एमी का प्रणय पथ- कादम्बरी मेहरा @kadambari mehra , हम पहुँच जाएँगे तेरी शादी में भारत...- अर्चना पैन्यूली Archana Painuly , तुम सही हो लक्ष्मी- डॉ.रमाकांत शर्मा @ramakant sharma , जुड़े गाँठ पड़ जाए....- ज्योति जैन @jyoti jain , छोछक- रेनू यादव Renu Yadav , बोआई की खुशबू- पंकज त्रिवेदी Pankaj Trivedi , ऊब- राजेश झरपुरे Rajesh Zarpure । लघुकथाएँ- लव स्टोरीञ्चसाकेत मॉल- संगीता कुजारा टाक Dolly Tak , मंदिर की पवित्रता- सुभाष चंद्र लखेड़ा Subhash Chandra Lakhera , परख- डॉ. प्रदीप उपाध्याय @pradeep upadhyaya , बेटे होकर- सुमन कुमार @suman kumar । व्यंग्य- मेरे साक्षात्कार - अश्विनीकुमार दुबे Ashwini Kumar Dubey । भाषांतर- अपना घर, मूल कथा : मंशायाद, अनुवाद- शहादत Shahadat Mehinuddin । शहरों की रूह- पहाड़ी सुंदरी गुस्से में है!, मुरारी गुप्ता Murari Gupta । आलेख- अनाम रिश्तों की चितेरी, वीरेन्द्र जैन Virendra Jain । संस्मरण- जब दिल्ली प्रेस की नौकरी छूटी, अमरेंद्र मिश्र Amrendra Mishra । हमारी धरोहर- कीकली कलीर दी...., शशि पाधा Shashi Padha , चिट्ठियाँ हो तो हर कोई बाँचे....., गोवर्धन यादव @govardhan yadav । यात्रा-संस्मरण- स्वदेश विदेशियों की नज़र में...., डॉ. अफ़रोज़ ताज Afroz Taj । नव पल्लव- सुजाता के बुद्ध, अनुजीत इकबाल @anujit iqbal । कविताएँ- विशाखा मुलमुले @vishakha mulmule , डॉ. अतुल चतुर्वेदी DrAtul Chaturvedi , प्रगति गुप्ता Pragati Gupta , अरविन्द यादव @arvind yadav , अनिता रश्मि Anita Rashmi , डॉ. शोभा जैन Shobha Jain । समाचार सार- स्पेनिन सम्मान समारोह Kumar Sanjay , विकेश निझावन सम्मानित Nijhawan Vikesh , उज्जैन पुस्तक मेला Lalitya Lalit , अनुवाद कार्यशाला, हिन्दी दिवस समारोह Sanjay Dwivedi , पुस्तकों का लोकार्पण, अशोक ‘अंजुम’ विशेषांक Ashok Anjum , पुस्तक चर्चा Urmila Shirish , काव्य-प्रवाह, शब्द प्रवाह साहित्य सम्मान @sandeep , मासिक कविता गोष्ठी, राष्ट्रीय संगोष्ठी। आख़िरी पन्ना। आवरण चित्र राजेंद्र शर्मा, रेखाचित्र - अनुभूति गुप्ता अनुभूति गुप्ता , डिज़ायनिंग सनी गोस्वामी Sunny Goswami , शहरयार अमजद ख़ान Shaharyar Amjed Khan , आपकी प्रतिक्रियाओं का संपादक मंडल को इंतज़ार रहेगा। पत्रिका का प्रिंट संस्क़रण भी समय पर आपके हाथों में होगा।
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